रमज़ान और इसके फायदे
Author Name: वारिस हुसेन

रमज़ान और इसके फायदे

रमज़ान के महीने में इस्लाम में आस्था रखने वाले पूरे 30 दिन, सूर्योदय से सूर्यास्त तक, हर प्रकार के खान-पान को त्याग कर अपने रचयिता और सृष्टा अल्लाह-ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाते हैं। पूरे मुस्लिम समाज में चारों ओर आध्यात्मिकता से परिपूर्ण एक अत्यंत ही मनमोहक वातावरण छा जाता है। बल्कि सत्य तो यह है कि लोगों की पूरी दिनचर्या ही परिवर्तित हो जाती है। भोर से काफी पूर्व ही निंद्रा को पराजित करते हुए उठ खड़े होना, सूर्योदय से पूर्व अल्लाह ईश्वर के आदेश का पालन करते हुए कुछ भोजन करना (जिसे सहरी कहते हैं), फ़िर दिन की पांच अनिवार्य नमाज़ों में से प्रथम नमाज़ (फ़ज्र की नमाज़) के लिए मस्जिद की ओर लपकना, दिनभर की व्यस्तता के बीच समय निकाल कर पवित्र कुरआन का अध्ययन करना और साथ ही शेष चार नमाज़ों को पूरा करना और फ़िर ठीक सूर्यास्त के समय रोज़ा इफ़्तार के लिए उपस्थित हो जाना। पूरा दिन 14-15 घंटे भूखा-प्यासा रहने के उपरान्त रोज़ा इफ़्तार करके अभी ठीक से सांस लेने का समय भी नहीं मिला होता, कि रात की नमाज़ के साथ तरावीह के लिए पुनः मस्जिद की ओर चल पड़ना। इसमें लगभग एक घंटा अपने मालिक के समक्ष नमाज़ में व्यस्त रहना होता है। रात तो अपने समय पर आती है, पर रमज़ान में सोने का अवसर बहुत कम मिल पाता है।

पवित्र कुरआन के अध्ययन से ज्ञात होता है कि रमज़ान के रोज़ों में इस कठिन अभ्यास का बड़ा ही उच्च उद्देश्य बताया गया है जिसे उसकी भाषा में ‘तक़वा’ कहते हैं। हिंदी में इसका अनुवाद ईश-परायणता, ईशभय, अपने मालिक के समक्ष उत्तरदायित्व की अनुभूति आदि किया जाता है। दुसरे शब्दों में अपने मालिक के आदेशों का पालन करने में सदा तत्पर रहना और उनकी अवहेलना से बचने का प्रयत्न करना।

कुरआन के अध्ययन से यह सत्य भी सामने आता है कि अल्लाह ईश्वर ने रोज़ा मात्र मुसलमानों पर नहीं, बल्कि सदा से हर कौम पर अनिवार्य किया है।

ऐ ईमान लानेवालो! तुमपर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुमसे पहले के लोगों पर अनिवार्य किए गए थे, ताकि तुम में तक़वा पैदा हो जाए।“(कुरआन 2:183)

शायद यही कारण है कि किसी न किसी रूप में और किसी न किसी नाम से रोज़े की यह प्रक्रिया सभी धर्मों में पाई जाती है। कहीं इसे fast कहते हैं, तो कहीं व्रत और कहीं उपवास। संसार का मालिक तो एक ही है और कोई अचम्भे की बात नहीं कि उसने ‘तक़वा’ उत्पन्न करने के लिए यह प्रक्रिया सदा ही अनिवार्य की हो।

रमज़ान की दिनचर्या भले ही अत्यंत कठिन और कड़ी प्रतीत होती हो, इस पूरे महीने में सब के चेहरों पर बड़े ही संतोष, धीरज और शांति के भाव नज़र आते हैं। हर कोई स्वेच्छा और प्रसन्नता से रोज़ा रखता है। उसे विश्वास होता है कि उसका यह परिश्रम व्यर्थ और विफल नहीं होने वाला और उसका मालिक इसका अच्छा परिणाम अवश्य प्रदान करेगा, चाहे इस सांसारिक जीवन में या पारलौकिक जीवन में। बल्कि सत्य तो यह है कि यह सारा परिश्रम पारलौकिक जीवन की सफ़लता के उद्देश्य से ही किया जाता है।

इस्लाम की सबसे बड़ी विशेषता पारलौकिक जीवन पर विश्वास ही है, जिसके असर से इस्लाम के अनुयायी बड़े से बड़े संकट को भी सहजता से सहन कर लेते हैं।

सांसारिक जीवन के सम्बन्ध में इस्लाम की धारणा है कि यह जीवन वास्तव में अनन्तकालीन पारलौकिक जीवन में सफ़लता की तैयारी के लिए ही प्रदान किया गया है।

यह भी देखने में आया है कि इस महीने में मुस्लिम-बाहुल्य देशों में लोगों के आपसी लड़ाई-झगड़े और अपराध में बड़ी कमी आ जाती है। इसका श्रेय रमज़ान में उत्पन्न हुई तक़वा की भावना को ही दिया जा सकता है जो हर किसी के ह्रदय में अल्लाह के समक्ष जवाबदेही के एहसास को भर देती है। तक़वा कोई देखने और मापे जाने वाली चीज़ नहीं है। यह तो एक भावना है जो बन्दे का सम्बन्ध अपने मालिक के साथ मज़बूत कर देती है और उसको अपराध करते हुए स्वयं पर घृणा उत्पन्न होने लगती है और उसकी आँखों के सामने वह क्षण घूमने लगता है जब वह अकेला अपने मालिक के समक्ष उपस्थित किया जाएगा और वह जीवन के एक-एक कर्म का हिसाब लेगा। दुसरे शब्दों में तक़वे को एक ऐसे संतरी की संज्ञा दी जा सकती है जो अपराध से पूर्व ही आदमी को उससे रोकने की क्षमता रखता है। जबकि क़ानून का संतरी अपराध के उपरान्त ही हरकत में आता है। इस्लाम में इसीलिए यह शिक्षा दी जाती है कि मात्र भूखा-प्यासा रहने से रोज़ा स्वीकार नहीं होता जबतक कि हर बुराई और बुरे कर्म से स्वयं को रोक न लिया जाए। न झूठ बोले, न लड़ाई-झगड़ा करे और न किसी को किसी भी प्रकार से हानि पहुंचाए।

रमज़ान का यह पवित्र महीना लोगों में कुछ अत्यंत लाभकारी गुण उत्पन्न करने की क्षमता रखता है, जो समाज के लिए भी हितकारी हैं और हर किसी को सफ़लता के मार्ग पर चलाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

1. आत्म-जागरूकता: खाना-पीना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसके लिए किसी को चित्त-जमाने या ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता नहीं होती। परन्तु किसी को यदि पूरे दिन खाने-पीने से रुकना है, तो इसके लिए उसे अवश्य ही अपना पूरा ध्यान केन्द्रित करना होगा, इस निर्णय पर चित्त ज़माना होगा और अपनी सारी इन्द्रियों की लगाम अपने हाथ में लेनी होगी अन्यथा यह कठिन कार्य संभव नहीं हो पाएगा। स्वयं पर ध्यान केन्द्रित करने की यही प्रक्रिया व्यक्ति में आत्म-जागरूकता का कारण बनती है। उसे अपनी शक्ति, क्षमता, योग्यता और सामर्थ्य का बोध और परिचय हो पाता है। यह जागरूकता उसको अपने जीवन के समस्त क्षेत्रों और कार्यों में सही दिशा और निर्णय लेने में सहायक होती है और उसके जीवन को सफ़लता के मार्ग पर डाल देती है।

इस्लाम के दुसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर का यह कथन बड़ा ही उपयुक्त है कि,

लोगों अपना हिसाब कर लो, इससे पहले की तुम्हारा हिसाब किया जाए”।

हर समय अपना हिसाब करते रहना ही जागरूकता की निशानी है।

2. ईश्वर से निकटता: इस्लाम का उद्देश्य ही लोगों को अपने मालिक और सृष्टा की वास्तविकता का बोध कराकर उससे सम्बन्ध मज़बूत करना और समीपता पैदा करना है। यही कारण है कि इस्लाम में उपासना और इबादत के समस्त रूप इसी उद्देश्य की पूर्ति में सहायक नज़र आते हैं। रमज़ान के रोज़े अल्लाह और बन्दों के बीच की दूरी समाप्त करने का सबसे अच्छा उदाहरण हैं।

कुरआन में अल्लाह ने स्वयं यह घोषणा करके इस समस्त दूरी को समाप्त कर दिया है।

और जब तुमसे मेरे बन्दे मेरे सम्बन्ध में पूछें, तो मैं तो निकट ही हूँ, पुकारने वाले की पुकार का उत्तर देता हूँ जब वह मुझे पुकारता है, तो उन्हें चाहिए कि वे मेरा हुक्म मानें और मुझपर ईमान रखें, ताकि वे सीधा मार्ग पा लें।“ (कुरआन 2:186)

अपने मालिक से निकटता के प्रयत्न में रमज़ान में पवित्र ग्रन्थ कुरआन का पाठ और अध्ययन, दिन की पांच नमाज़ों में दुनिया से काटकर उसके समक्ष उपस्थित होना, उसकी आज्ञापालन में दिनभर कुछ प्रिय चीज़ों को स्वयं पर प्रतिबंधित कर लेना, हर ख़ाली समय में उसके गुणगान करते रहना और उससे अपने पापों का प्रायश्चित करना आदि वह कार्य हैं जो उसकी निकटता प्रदान करते हैं। इसमें अर्धरात्रि के समय या उसके उपरान्त पढ़ी जाने वाली तहज्जुद की नमाज़ को भी शामिल कर लें, जब बंदा पूरे एकांत में एकाग्रता के साथ अपने मालिक के आगे खड़ा होकर प्रार्थना करता है और वैसे तो इस्लाम चाहता है कि यह समस्त कर्म हमारी रोज़ की दिनचर्या का हिस्सा बन जाएँ जिससे उसकी समीपता सदा बनी रहे, पर रमज़ान में इसका विशेष प्रबन्ध किया जाता है।

3. दया भाव: एक भूखे-प्यासे इंसान को दुसरे ग़रीब और संकट से ग्रस्त लोगों की करुणा समझना आसान होता है इसलिए रमज़ान में दूसरों के प्रति दया भाव में तीव्र वृद्धि हो जाती है। और जब यह भावना अनिवार्य ज़कात के प्रावधान से मिल जाती है तो यह अपनी पराकाष्ठा को पहुँच जाती है। वास्तव में ज़कात के अनिवार्य किए जाने का उद्देश्य भी यही है कि लोगों में छिपी दया की भावना को उत्प्रेरित और सक्रिय किया जाए जिससे हर व्यक्ति अल्लाह की दी हुई रोज़ी में दूसरों का हिस्सा भी निकाले।

इस्लाम की शिक्षा भी यही है कि अल्लाह ईश्वर द्वारा प्रदान किए जीवन-यापन के साधन में दूसरों का भी अधिकार है और उसे उन तक न पहुँचाना बड़ा पाप है। गरीबों को देने से रोज़ी में कमी नहीं आती बल्कि अल्लाह उसे अपनी ओर से बढ़ाता रहता है। रमज़ान के महीने में दया भाव का यह प्रवाह हर तरफ देखने में आता है। लोग ढाई प्रतिशत अनिवार्य ज़कात तो गरीबों को देते ही हैं, हर कोई प्रयत्न करता है कि इससे अधिक जितना संभव हो दे, इफ़्तार के लिए बनाया हुआ भोजन भी गरीबों के घर पहुँचाया जाता है और उन्हें अपने घर बुलाया भी जाता है। शायद इसी प्रवाह का असर है कि रमज़ान में हर तरफ मांगने वालों की संख्या बहुत बढ़ जाती है और उन सब को कुछ न कुछ मिल जाता है। इस्लाम चाहता है कि यह भावना रमजान के उपरान्त भी जागृत रहे जिससे कि कोई ग़रीब कभी भूखा न रहे।

रमजान का यह पवित्र महीना अपना समय पूर्ण होने पर हमसे रुखसत हो जाएगा, पर आशा है कि अपने पीछे कुछ लोगों के जीवन में मूलभूत परिवर्तन छोड़ जाएगा, जिससे वह स्वयं को समाज के हित में बेहतर तरीक़े से समर्पित कर सकेंगे। स्वयं को ईश्वरीय मार्गदर्शन की छाया में ढालने का यह अवसर हर उस व्यक्ति के लिए है जो इससे लाभ उठाना चाहे।