ज़कात

ज़कात

र्इश्वर ने प्रत्येक मुसलमानों धनवान व्यक्ति के लिए अनिवार्य किया हैं कि यदि उसके पास कम से कम साढ़े बावन तोला चॉदी हो और उसे रखे हुए पूरा एक वर्ष बीत जाए, तो वह उसमें से चालीसवॉ भाग अपने किसी ग़रीब नातेदार या किसी मोहताज, किसी असहाय निर्धन, किसी नवमुस्लिम, किसी मुसाफिर या किसी कर्जदार व्यक्ति को दें दें। इस प्रकार र्इश्वर ने धनवानों की सम्पत्ति में निर्धनों के लिए कम से कम ढार्इ प्रतिशत भाग निश्चित कर दिया है। इससे अधिक यदि कोर्इ कुछ दें तो यह एहसान हैं जिसका पुण्य और अधिक होगा। देखिए, यह हिस्सा अल्लाह को नही पहुचता। उसे आपकी किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं। परन्तु वह कहता हैं कि तुमने प्रसन्नता पूर्वक मेरे लिए अपने किसी गरीब भार्इ को कुछ दिया तो मानों मुझकों दिया, उसकी ओर से मैं तुम्हे कर्इ गुना अधिक बदला दूगा। हॉ, शर्त यह हैं कि उसकों देकर तुम कोर्इ एहसान न जताओं, उसका अपमान न करों, उससे धन्यवाद की आशा न रखो, यह भी कोशिश न करो कि तुम्हारे इस दान की लोगो में चर्चा हो और लोग तुम्हारी प्रशंसा करें कि अमुक सज्ज़न बड़े दानी हैं। यदि इन सभी नापाक विचारों से अपने मन को शुद्ध रखोंगे और केवल मेरी प्रसन्नता के लिए अपने धन में निर्धनो को हिस्सा दोगे तो मैं अपने असीमित धन में से तुमकों वह हिस्सा दूॅगा जो कभी समाप्त न होगा। र्इश्वर ने इस ज़कात को भी हमारे लिए उसी प्रकार अनिवार्य किया हैं जिस प्रकार नमा़ज और रोजे को अनिवार्य किया हैं। यह इस्लाम का बहुत बड़ा स्तंभ हैं और इसे स्तंभ इसलिए माना गया हैं कि यह मुसलमानों में र्इश्वर (की प्रसन्नता) के लिए बलिदान और त्याग का गुण पैदा करता हैं। स्वार्थ, तंगदिली और धन-लालुपता के बुरे गुण को दूर करता हैं। धन की पूजा करनेवाला और रूपये पर जान देनेवाला लोभी और कंजूस व्यक्ति इस्लाम के किसी काम का नही। जो व्यक्ति र्इश्वर की आज्ञा से अपने गाढ़े पसीने की कमार्इ बिना किसी निजी स्वार्थ के निछावर कर सकता हो वही इस्लाम के सीधे मार्ग पर चल सकता हैं।

जकात मुसलमानों को इस बलिदान और त्याग का अभ्यास कराती हैं और उसकों इस योग्य बनाती है कि र्इश्वर के मार्ग में जब माल ख़र्च करने की आवश्यकता हो, तो वह अपने धन को सीने से चिपटाए न बैठा रहे बल्कि दिल खोलकर ख़र्च करें। जकात का सांसारिक लाभ यह हैं कि मुसलमान परस्पर एक-दूसरे की मदद करें। कोर्इ मुसलमान नंगा, भूखा और अपमानित न हो। जो धनवान हैं वे दीन-दुखियों को संभाले और जो निर्धन हैं वे भीख मॉगते न फिरे। कोर्इ अपने धन को केवल अपने भोग-विलास और ठाठ-बाट में न उड़ा दें, बल्कि यह भी याद रखें उसमें उसकी जाति के अनाथों और विधवा स्त्रियों और ग़रीबों का भी हक़ हैं। उसमें उन लोगो का भी हक़ है जो काम करते की योग्यता रखते हैं परन्तु धन के न होने के कारण मजबूर हैं। इसमें उन बच्चों का भी हक़ हैं जो प्राकृतिक रूप से मस्तिष्क और प्रतिभा साथ लाए हैं परन्तु निर्धन होने के कारण शिक्षा नहीं हासिल कर सकते । इसमें उनका भी हक़ है। जो अपाहिज हो गए हैं और कोर्इ काम करने के योग्य नही। जो व्यक्ति इस हक़ को नही मानता वह जालिम हैं। इससे बढ़कर क्या जुल्म होगा कि आप अपने पास रूपयों के खत्ते के खत्ते भर बैठे रहे, कोठियों में ऐश करें, मोटरें में चढ़े-चढ़े फिरें और आपकी जाति के हजा़रों व्यक्ति रोटियों को तरसते हों और हजारों काम के व्यक्ति मारे-मारे फिरें, इस्लाम ऐसी खुदग़र्जी का दुश्मन हैं। काफिरों (अधर्मियों) को उनकी सभ्यता यह सिखाती हैं कि जो कुछ धन उनके हाथ लगे उसको समेट-समेट कर रखें और उसे ब्याज पर चलाकर आस-पास के लोगो की कमार्इ भी अपने पास खीच लें, परन्तु मुसलमानों को उनका धर्म यह सिखाता हैं कि यदि र्इश्वर आपकों इतनी रोज़ी दें जो आपकी आवश्यकता से अधिक हो तो उसको समेट कर न रखिए, बल्कि अपने दूसरे भाइयों को दीजिए ताकि उनकी जरूरतों पूरी हो और आपकी तरह वे भी कुछ कमाने और काम करने योग्य हो जाएॅ।