क्या इस्लामी राज्य में नागरिकों के अधिकार हनन होते हैं?
Author Name: सैयद अबुल आला मौदूदी (रहo)

क्या इस्लामी राज्य में नागरिकों के अधिकार हनन होते हैं?

इस्लामी राज्य में नागरिकों के अधिकार

1- जान-माल की रक्षा

अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने अपने आखिरी हज के मौक़े पर जो तक़रीर की थी, उसमें फ़रमाया था कि
तुम्हारी जानें और तुम्हारे माल एक दूसरे पर क़ियामत तक के लिए हराम हैं।

‘‘जो आदमी किसी मोमिन को जान बूझ कर क़त्ल करे, उसकी सज़ा जहन्नम है, जिसमें वह हमेशा रहेगा, अल्लाह ने उस पर लानत फ़रमाई है और उसके लिए सख्त अज़ाब तैयार कर रखा है।’’ (क़ुरआन 4:93)

नबी (सल्ल0) ने ज़िम्मियों के बारे में भी फ़रमाया कि
‘‘जिसने किसी मुआहिद (यानी ज़िम्मी) को क़त्ल किया वह जन्नत की खुशबू तक न सूंघ सकेगा।

‘‘क़ुरआन किसी जान के क़त्ल करने को हराम क़रार देने के बाद, इसमें सिर्फ़ एक क़त्ल की इजाज़त देता है और वह यह है कि ऐसा क़त्ल जो हक़ के साथ हो। यानी नाहक़ न हो, बल्कि कोई क़ानूनी हक़ उसका तक़ाज़ा करता हो कि आदमी को क़त्ल किया जाये और ज़ाहिर है कि ह़क़ और नाहक़ का फ़ैसला एक अदालत ही कर सकती है। और जंग या बगावत की सूरत में एक इन्साफ़ पसन्द हुकूमत यानी शरीअत की पाबन्द हुकूमत ही यह तय कर सकती है कि न्याय-संगत जंग कौन-सी है, जिसमें इन्सानी खून बहाना ज़ायज़ हो। और इस्लामी क़ानून की निगाह से बागी कौन क़रार पाता है, जिस पर तलवार उठा ली जाये, या जिसको मौत की सज़ा दी जाये।

ये फ़ैसले न किसी ऐसी अदालत पर छोड़े जा सकते हैं जो खुदा से बेखौफ शासन व्यवस्था से भयभीत हो कर इन्साफ़ करने लगे और न किसी ऐसी हुकूमत के जुर्म, क़ुरआन-हदीस के अनुसार, जायज़ क़रार पा सकते हैं, जो बेझिझक अपने शहरियों को सिर्फ़ इसलिए खुले या छिपे क़त्ल करती हो कि वे उसकी अनुचित कार्यवाइयों से मतभेद करते या उनकी आलोचना करते हैं और उसके इशारे पर क़त्ल जैसे बड़े जुर्म का अपराध करने वालों को उल्टा सुरक्षा देती हो कि उनके खिलाफ़ न पुलिस कार्यवाही करे न अदालत में कोई सुबूत और गवाही पेश हो सके।

ऐसी हुकूमत का वजूद ही एक जुर्म है, न यह कि उसके हुक्म से किसी इन्सान के क़त्ल पर क़ुरआन की इस्तिलाह ‘‘क़त्ल बिल हक़’’ (यानी हक़ के साथ क़त्ल) लागू हो सके।


जान के साथ माल की रक्षा का हक़ भी इस्लाम ने स्पष्ट रूप से दिया है। बल्कि क़ुरआन तो खुदा के क़ानून के सिवा किसी और तरीक़े से लोगों के माल लेने को बिल्कुल हराम क़रार देता है।
‘‘और अपने माल आपस में बातिल तरीक़े से न खाया करो।’’ (क़ुरआन 2:188)


2- इज़्ज़त की रक्षा

दूसरा बड़ा हक़ एक नागरिक की इज़्ज़त की रक्षा है। आखिरी हज की तक़रीर में हुज़ूर (सल्ल0) ने मुसलमानों की सिर्फ़ जान-माल ही को एक दूसरे पर हराम क़रार नहीं दिया था, बल्कि उनकी इज़्ज़त व आबरू को भी क़ियामत तक हराम ठहराया था। क़ुरआन में साफ हुक्म है कि
‘‘लोग एक दूसरे का मज़ाक न उड़ाएं, एक दूसरे की हंसी न करें। और तुम आपस में एक दूसरे पर चोटें न करो, फ़ब्तियां न कसो, इल्ज़ाम न धरो, ताने न दो, खुल्लम खुल्ला या होठों के अन्दर या इशारों से उसको ज़लील न करो। एक दूसरे के बुरे नाम न रखो।’’(क़ुरआन 49:11)

‘‘और तुममें से कोई किसी की पीठ पीछे उसकी बुराई न करे। (क़ुरआन 49:12)

यह है हमारा इज़्ज़त की रक्षा का क़ानून और यह पश्चिम वालों के मानहानि के कानून (Defamation) से कई गुना बेहतर है।

हमारे क़ानून की रूह से अगर यह बात साबित हो जाये कि किसी ने किसी आदमी की इज़्ज़त पर हमला किया है तो इसको देखे बगैर कि वह मज़्लूम अपने आप को इज़्ज़तदार साबित करता है या नहीं, ज़ालिम को उसकी सज़ा बहरहाल दी जायेगी।

लेकिन पश्चिम वालों के क़ानून का कमाल यह है कि मान-हानि का दावा करने वाले को पहले यह साबित करना होता है कि वह इज़्ज़त वाला है और इस बहस में उस ग़रीब की उस से ज़्यादा तौहीन और बेइज़्ज़ती हो जाती है, जिसकी फ़रियाद ले कर वह इन्साफ़ का दरवाज़ा खटखटाने गया था। इसके अलावा कुछ ऐसे गवाह भी उसे पेश करने पड़ते हैं कि मुल्ज़िम की बेइज़्ज़त करने वाली बातों से वह वाकई उनकी निगाह में ज़लील हो गया है। किस ग़ज़ब की क़ानूनदानी है यह, जिसे खुदा के बनाये हुए क़ानून के सामने लाया जाता है। इस्लाम तो बजाये खुद किसी आदमी की तौहीन को जुर्म क़रार देता है, चाहे वह इज़्ज़त वाला हो, या न हो और चाहे तौहीन करने वाले की बातों से उसकी वाक़ई तौहीन हुई या नहीं। इस्लामी क़ानून की रूह से मुल्ज़िम के इस कार्य का साबित हो जाना, उसको मुजरिम क़रार देने के लिए काफ़ी है कि उसने ऐसी बात की है, जो आम अक़्ल (Common Sense) के लिहाज़ से फ़रयादी के लिए तौहीन का कारण हो सकती है।


3- निजी ज़िन्दगी की सुरक्षा

इस्लाम अपने राज्य के हर नागरिक का यह हक़ क़रार देता है कि उसकी निजी ज़िन्दगी में कोई ना-मुनासिब दखल-अन्दाज़ी न होने पाये। क़ुरआन का हुक्म है कि
‘‘एक दूसरे के हालात की टोह में न रहा करो।’’ (क़ुरआन 49:12)

‘‘लोगों के घरों  में उनकी इजाज़त के बगैर अन्दर न जाओ।’’ (क़ुरआन 24:27)

अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने यहां तक ताकीद की कि आदमी खुद अपने घर में अचानक दाखिल न हो, बल्कि किसी न किसी तरह घरवालों को खबरदार कर दे कि वह अन्दर आ रहा है ताकि मां बहनों और जवान बेटियों पर ऐसी हालत में नज़र न पड़े, जिसमें न वह उसे पसन्द कर सकती हैं कि उन्हे देखा जाये, न खुद वह आदमी यह पसन्द करता है कि उन्हे देखे।

दूसरों के घर में झांकने की कोशिश करना भी सख्त मना है। यहां तक कि अल्लाह के रसूल (सल्ल0) का फरमान है कि
‘‘अगर कोई आदमी किसी को अपने घर में झांकते हुए देखे और वह उसकी आंख फोड़ दे तो उस पर कोई पकड़ नहीं।‘‘

हुज़ूर (सल्ल0) ने दूसरे का खत तक उसकी इजाज़त के बगैर पढ़ने से मना फ़रमाया है। यहां तक कि कोई अपना खत पढ़ रहा हो और दूसरा आदमी झांक कर उसे पढ़ने लगे तो यह भी सख्त मना है।

यह है इस्लाम मे इन्सान के निजत्व (Privacy) का आदर। उधर इस नई सभ्यता के तहत हमारी दुनिया का हाल यह है कि न सिर्फ़ लोगों के पत्र पढ़े जाते हैं और उनको सेन्सर किया जाता है और बाक़ायदा उनकी फोटोस्टेट कापियां भी रख ली जाती हैं, बल्कि अब लोगों के घरों में ऐसी मशीने भी लगायी जाने लगी हैं, जिनकी मदद से आप दूर बैठे हुए यह सुनते रहें कि उसके घर में क्या बातें हो रही हैं। इसके दूसरे माने यह हैं कि अब निजत्व कोई चीज़ नहीं है और आदमी की निजी ज़िन्दगी का व्यवहारत: खातमा कर दिया गया है।


इस टोह के लिए यह कोई नैतिक तर्क नही है कि हुकूमत खतरनाक आदमियों के रहस्यों से वाक़िफ़ रहना ज़रूरी समझती है। हालांकि हक़ीक़त में उसकी बुनियाद वह शक़ व शुबह है, जिसमें वह कुछ समझदारी और सरकारी पालसियों पर बे-इत्मिनानी की बू सूंघ लेती है। यही चीज़ है, जिसको इस्लाम राजनीति में बिगाड़ की जड़ क़रार देता है। अत: अल्लाह के रसूल (सल्ल0) का इरशाद है,
‘‘वक़्त का हाकिम जब लोगों के अन्दर शंकाओं के कारण ढूंढने लगता है तो उनको बिगाड़ कर रख देता है।''

‘‘अमीर मुआविया (रज़ि0) का बयान है कि उन्होंने खुद हुज़ूर (सल्ल0) को यह फ़रमाते सुना है कि
‘‘अगर तुम लोगों के पोशीदा हालात मालूम करने के दर पे हो गये तो उन्हे बिगाड़ दोगे या कम से कम बिगाड़ के क़रीब पहुंचा दोगे।’’

बिगाड़ने का मतलब यह है कि जब लोगों के राज़ टटोलने के लिए जासूस (सी0आई0डी0) फैला दिये जाते हैं तो लोग खुद एक दूसरे को शंका की नज़र से देखने लगते हैं, यहां तक कि अपने घरों तक में वह खुल कर बात करते हुए डरते हैं कि न मालूम अपने ही बच्चों की ज़ुबान से कोई बात ऐसी निकल जाये जो हम पर आफ़त ले आये, इस तरह अपने घर तक में मुंह खोलना आदमी के लिए मुश्किल हो जाता है और समाज में एक आम बेएतमादी की कैफ़ियत पैदा हो जाती है।


4- व्यक्तिगत आज़ादी की सुरक्षा

इस्लाम यह नियम भी तय करता है कि किसी आदमी को उसका जुर्म अदालत में, और वह भी खुली अदालत में साबित किये बग़ैर क़ैद नहीं किया जा सकता। सिर्फ़ सन्देह की बिना पर पकड़ना और किसी अदालती कार्यवाही के बग़ैर और सफ़ाई पेश करने का मौक़ा दिये बग़ैर क़ैद कर देना इस्लाम में जायज़ नहीं है। हदीस में बयान हुआ हैं कि
नबी (सल्ल0) एक बार मस्जिद में खुतबा दे रहे थे। खुतबे के दौरान में एक आदमी ने उठ कर कहा, ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे पड़ोसी किस जुर्म में पकड़े गये हैं? आप (सल्ल0) ने सुना और खुतबा जारी रखा। उसने फिर उठ कर यही सवाल किया, आप ने फ़िर खुतबा जारी रखा, उसने तीसरी बार उठ कर यही सवाल किया। तब आप (सल्ल0) ने हुक्म दिया कि इसके पड़ोसियों को छोड़ दो।

दो बार सुनकर खामोश रहने की वजह यह थी कि कोतवाल मस्जिद में मौजूद था। अगर उस आदमी के पड़ोसियों को गिरफ़्तार करने की कोई खास वजह होती तो वह उठ कर उसे बयान करता। जब उसने कोई वजह बयान न की, तो हुज़ूर (सल्ल0) ने हुक्म दे दिया कि जिन लोगों को गिरफ़्तार किया गया है, उन्हे छोड़ दिया जाये।

कोतवाल इस्लामी क़ानून से वाकिफ़ था। इसलिए उसने उठकर यह नहीं कहा कि ‘‘प्रशासन उनके क़सूर से वाकिफ़ है और एलानिया वह अपराध बयान नहीं किया जा सकता, हुज़ूर (सल्ल0) अकेले में मालूम करें तो अर्ज़ कर दिया जायेगा।’’

यह बात अगर कोतवाल ज़ुबान से निकालता तो उसी वक़्त खड़े-खड़े उसे मुलाज़मत से निकाल दिया जाता। अदालत के लिए यह बात बिल्कुल काफ़ी थी कि कोतवाल ने गिरफ़्तारी की कोई वजह खुली अदालत में पेश नहीं की है। इसलिए फ़ौरन रिहाई का हुक्म दे दिया गया। क़ुरआन का साफ हुक्म है कि
‘‘और जब तुम लोगों के बीच फ़ैसला करो, तो न्याय के साथ करो।’’ (क़ुरआन 4:58)

और हुज़ूर (सल्ल0) का खुद यह हुक्म था कि
‘‘और मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं तुम्हारे बीच इन्साफ़ करूं।’’ (क़ुरआन 42:15)

इसी बिना पर हज़रत उमर (रज़ि0) ने कहा कि
‘‘इस्लाम में कोई आदमी इन्साफ़ के बग़ैर क़ैद नहीं किया जा सकता।''

यह शब्द खुद बता रहे हैं कि इन्साफ़ से मुराद उचित अदालती कार्यवाही (Due process of law) है और जिसको मना किया गया है, वह यह है कि किसी आदमी को उसके जुर्म का सुबूत और अदालत मे सफ़ाई का मौक़ा दिये बग़ैर पकड़ कर क़ैद कर दिया जाये।

अगर हुकूमत किसी पर यह संदेह रखती हो कि उसने कोई जुर्म किया है या वह कोई जुर्म करने वाला है तो उसे अदालत के सामने अपने संदेह के कारण बयान करने चाहिए और मुल्ज़िम या सन्दिग्ध आदमी को खुली अदालत में अपनी सफ़ाई पेश करनी चाहिए ताकि अदालत यह फ़ैसला कर सके कि उस आदमी पर सन्देह की कोई सही बुनियाद है या नहीं, और सही बुनियाद है तो उसको जुर्म से दूर रखने के लिए कितनी मुददत तक क़ैद रखना चाहिए।

यह फ़ैसला लाज़मी तौर पर खुली अदालत में होना चाहिए, न कि बन्द कमरे में (In camera) ताकि हुकूमत का इल्ज़ाम और मुल्ज़िम की सफाई और अदालत की कार्यवाही देख कर लोगों को मालूम हो जाये कि उसके साथ इन्साफ़ किया जा रहा है, बेइन्साफ़ी नहीं की जा रही है।

इस मामले में इस्लाम का तरीक़ेकार खुद अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के एक फ़ैसले से मालूम होता है। बड़ी मशहूर घटना है कि
मक्का फ़तह के लिए जब अल्लाह के रसूल (सल्ल0) तैयारी कर रहे थे तो एक सहाबी हज़रत हातिब बिन बल्तअ (रज़ि0) ने मक्का के सरदारों के नाम एक खत लिख कर उस तैयारी की सूचना दे दी और वह खत एक औरत के हाथ मक्के भेज दिया।

अल्लाह के रसूल (सल्ल0) को यह बात मालूम हो गई। आप (सल्ल0) ने हज़रत अली (रज़ि0) हज़रत ज़ुबैर (रज़ि0) को हुक्म दिया कि जाओ फलां जगह पर एक औरत तुम को मिलेगी। उसके पास एक खत है। वह उससे हासिल कर के ले आओ।

चुनांचे वह गये और जो जगह रसूल़ (सल्ल0) ने बताई थी, उसी जगह वह औरत मिली। दोनों सहाबियों ने खत उससे ले लिया और लाकर आप (सल्ल0)  के सामने पेश कर दिया।

अब देखिये खुली हुई ग़द्द़ारी का मसला था। जंग के ज़माने में दुश्मन को अपनी फ़ौज के एक अहम राज़ की खबर दे देना और दुश्मनों को हमले की ख़बर वक़्त से पहले भेज देना ऐसा काम था जिससे ज़्यादा खतरनाक काम की कल्पना नहीं की जा सकती। बन्द कमरे में सुनवाई के लिए इससे ज़्यादा मुनासिब और कौन सा मुक़द्द़मा हो सकता था? लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्ल0) मस्जिद नबवी की खुली अदालत में सेकड़ों लोगों के सामने हज़रत हातिब (रज़ि0) को बुलाकर उनसे पूछ-ताछ करते हैं। वे कहते हैं कि ऐ अल्लाह के रसूल! मैं इस्लाम का बाग़ी नहीं हुआ हूं। ग़द्द़ारी की नीयत से यह काम मैं नहीं कर बैठा हूं। अस्ल में मेरे बाल-बच्चे वहां हैं और मक्के में कोई मेरा ख़ानदान नहीं है, जो मेरे बाल बच्चों की हिमायत करे, इसलिए मैंने यह खत लिखा ताकि मक्के वाले मेरा एहसान मानकर मेरे बाल बच्चों के साथ ज़्यादती न करें।

हज़रत उमर (रज़ि0) उठ कर अर्ज़ करते हैं कि ऐ अल्लाह के रसूल (सल्ल0) मुझे इजाज़त दीजिए कि इस ग़द्द़ार को क़त्ल कर दें।

अल्लाह के रसूल (सल्ल0) फ़रमाते हैं। यह बदर वालों में से हैं और इन्होंने अपने काम की जो वजह बयान की है वह सच के अनुकूल है।

हुज़ूर (सल्ल0) के इस फ़ैसले पर ग़ौर कीजिए। काम साफ़ ग़द्द़ारी का था, मगर आप दो बातों की वजह से हज़रत हातिब (रज़ि0) को बरी कर देते हैं। एक बात यह कि उनका पिछला रिकार्ड बता रहा है कि वह इस्लाम में ग़द्द़ार नहीं हो सकते, क्यूँकि उन्होंने बदर की जंग जैसे नाज़ुक मौक़े पर अपना सीना खतरों के आगे पेश किया था। दूसरे यह कि मक्के में उनके बाल-बच्चे वाक़ई खतरे में थे। इसलिए अगर उनसे यह कमज़ोरी हुई है, तो उसकी यह सज़ा काफ़ी है कि सबके सामने उनका राज़ खुल गया और इस्लाम के वफ़ादारों की निगाह में उनकी बेइज़्ज़ती हो गई।

क़ुरआन में भी हज़रत हातिब की इस घटना का अल्लाह ने ज़िक्र किया है, मगर डांट-फ़टकार के सिवा उनके लिए कोई सज़ा तय नहीं की गई है।

हज़रत अली (रज़ि0) के ज़माने में खारजियों का नीति-व्यवहार जैसा कुछ था वह इतिहास के पढ़ने वालों से छिपा हुआ नहीं है।
वह खुल्लम-खुल्ला आप को गालियां देते थे। क़त्ल तक कर देने की धमकियां देते थे। मगर इन बातों पर जब कभी इनको पकड़ा गया, आप ने उन्हें छोड़ दिया और अपनी हुकूमत के अफ़सरों से फ़रमाया कि

‘‘जब तक वह बाग़ियाना कार्यवाइयां नहीं करते, केवल ज़ुबानी मुखालिफत और धमकियां ऐसी चीज़ नहीं हैं जिनकी वजह से उन पर हाथ डाला जाये।

‘‘इमाम अबु हनीफ़ा अमीरूल मोमिनीन का यह कथन नक़ल करते हैं कि
‘‘जब तक वह खुरूज (स-शस्त्र बग़ावत) का इरादा नहीं करते, वक़्त का खलीफ़ा उन पर कार्यवाही नहीं करेगा।

एक और मौक़े पर हज़रत अली (रज़ि0) खुतबा दे रहे थे। खारजियों ने अपना खास नारा खुतबे के बीच में बुलन्द किया। आपने इस पर फ़रमाया
‘‘हम तुम्हें मस्जिदों में आकर अल्लाह को याद करने से न रोकेंगे और हुकूमत के माल में से तुम्हारा हक़ देना भी बन्द न करेंगे। जब तक तुम्हारे हाथ हमारे हाथों के साथ हैं (यानी जब तक तुम इस्लाम के दुश्मनों के खिलाफ़ लड़ने में हमारा साथ देते रहोगे) और हम तुमसे हरगिज़ जंग न करेंगे, जब तक तुम हमसे जंग नहीं करते।''

अब देखिये जिस अपोज़ीशन से हज़रत अली (रज़ि0) का सामना था, एक लोकतन्त्र व्यवस्था में उससे ज़्यादा सख्त अपोज़ीशन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मगर इसके मुक़ाबले में जो आज़ादी उन्होंने दे रखी थी, किसी हुकूमत ने ऐसी आज़ादी अपोज़ीशन को नहीं दी। उन्होंने क़त्ल की धमकियां देने वालों को भी न गिरफ़तार किया और न किसी को जेल भेजा।

5- ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का अधिकार

इस्लाम के दिये हुए अधिकारों में से एक अधिकार ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का अधिकार है। अल्लाह का इरशाद है कि
‘‘अल्लाह को बुराई के साथ आवाज़ बुलन्द करना पसन्द नहीं है, सिवाये उस आदमी के जिस पर ज़ुल्म किया गया हो।’’ (क़ुरआन 4:148)

यानी अल्लाह बुराई पर ज़ुबान खोलने को सख्त नापसन्द करता है। लेकिन जिस आदमी पर ज़ुल्म किया गया हो, उसको यह अधिकार देता है कि वह खुल्लम खुल्ला ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठाये।
यह हक़ सिर्फ़ लोगों ही के साथ खास नहीं है। आयत के शब्द आम हैं। इसलिए अगर कोई आदमी नहीं बल्कि कोई जमाअत या गिरोह हुकूमत पर ग़लबा हासिल करके लोगों या जमाअतों या मुल्क की पूरी आबादी पर ज़ुल्म ढाने लगे तो उनके खिलाफ़ सरे आम आवाज़ बुलन्द करना खुदा का दिया हुआ अधिकार है और इस हक़ को छीनने का किसी को अधिकार नहीं है।
अब अगर अल्लाह के दिये हुए उस हक़ को कोई छीनता है तो वह अल्लाह के खिलाफ़ बग़ावत करता है। दफा 144 उसे दुनिया में चाहे बचा ले जाये, अल्लाह की दोज़ख से बचाना उसकी करामतों में शामिल नही है।



6- अपनी राय को आज़ादी से प्रकट करने का अधिकार
इस्लामी हुकूमत के तमाम नागरिकों को इस्लाम अपनी राय को प्रकट करने की आज़ादी इस शर्त के साथ देता है कि वह भलाई फ़ैलाने के लिए हो, न कि बुराई फ़ैलाने के लिए।
अपनी राय का इज़हार करने की आज़ादी का यह इस्लामी तसव्वुर मौजूदा पश्चिमी कल्पना से कई गुना अच्छा है। बुराई फ़ैलाने की आज़ादी इस्लाम नहीं देता। आलोचना के नाम से अपशब्द कहने की भी वह इजाज़त नहीं देता। अल्बत्ता उसके नज़दीक भलाई फ़ैलाने के लिए अपनी राय का इज़हार करने का हक़ सिर्फ़ हक़ ही नहीं बल्कि मुसलमान पर एक फ़र्ज़ भी है, जिसे रोकना खुदा से लड़ाई मोल लेना है और यही मामला बुराई से मना करने का भी है।
बुराई चाहे कोई आदमी कर रहा हो या कोई गिरोह, खुद अपने मुल्क की हुकूमत कर रही हो या किसी दूसरे मुल्क की, अपनी क़ौम कर रही हो, या दुनिया की कोई दूसरी क़ौम, मुसलमान का हक़ है और यह उसपर फ़र्ज़ भी है कि उसे टोके, उससे रोके और उसके खिलाफ़, खुल्लम खुल्ला नाराज़गी का इज़हार करके यह बताये कि भलाई क्या है, जिसे उस व्यक्ति या क़ौम या हुकूमत को अपनाना चाहिए।


क़ुरआन मजीद में मोमिनों की यह खूबी बयान की गई है कि
‘‘वह भलाई के लिए कहने वाले और बुराई से रोकने वाले होते हैं।’’ (क़ुरआन 3:104)

इसके विपरीत मुनाफ़िक़ों की विशेषता यह बयान की गई है कि
‘‘वह बुराई के लिए कहने वाले और भलाई से रोकने वाले होते हैं।’’ (क़ुरआन 9:67)

ईमान वालों के बारे में फ़रमाया गया है कि उनकी हुकूमत होने का मक़सद ही यह है कि
‘‘उन लोगों को अगर हम ज़मीन में हुकुमत दें तो वह नमाज़ क़ायम करेंगे, ज़कात देंगे और बुराई से मना करेंगे।’’ (क़ुरआन 22:41)