इस्लाम और गैर-मुस्लिम
Author Name: इस्लाम और मानव समाज :सैयद मुहम्मद इकबाल

इस्लाम सारी मानवता के लिए अल्लाह की ओर से भेजी गर्इ जीवन व्यवस्था है। इसी के साथ-साथ भी एक तथ्य है कि हर युग मे इसको मानने और न मानने वाले अर्थात मुस्लिम और गैर-मुस्लिम के दो गिरोह रहे हैं। न मानने वालों के प्रति इस्लाम क्या रूख अपनाता हैं? हम इस प्रश्न का जवाब हासिल करने का प्रयास करेंगे।
इन्सान को इस धरती पर पूरी आजादी के साथ भेजा गया हैं। उसके सामने सारी सच्चाइयॉ रख दी गर्इ है और उसे पूरी आजादी दी गर्इ हैं कि वह चाहे तो इस्लाम को स्वीकार करें और चाहे तो अस्वीकार कर दें। अल्लाह ने जबरन हिदायत का तरीका नही अपनाया। सही और गलत रास्ता और उन पर चलने का फल लोगो के सामने रख दिया गया और फिर उन्हे चयन की आजादी दे दी गर्इ। इस्लाम की बाते लोगो के सामने रखी जायें, लेकिन जो लोग उसे न माने उन से कोर्इ झगड़ा न किया जाय, सम्बन्ध खराब न किये जाये, वे जिनको पूजते हैं, उन्हे बुरा भला न कहा जाये, उनका दिल न दुखाया जाये-यह हैं इस्लाम की शिक्षा। कुरआन कहता हैं:

‘‘.....अब जिस का जी चाहे मान ले और जिस का जी चाहे न माने।’’ (कहफ :29)

‘‘ये लोग अल्लाह के सिवा जिनको पुकारते हैं, उन्हे गालिया न दो।’’ (अनआम:108)

‘‘दीन (धर्म) मे कोर्इ जबरदस्ती नही।’’(बकरा :253)

यदि किसी देश मे इस्लामी सरकार हो तो उसका कर्तव्य है कि वह इस्लाम को न मानने वालो को भी देश का सम्मान जनक नागरिक माने। उन्हे नागरिको के सारे अधिकार मिले, उनकी जान-माल और पूजास्थलों की सुरक्षा का प्रबन्ध हो।

इस्लाम और जिहाद

            पश्चिम साम्राज्य ने अपने औपनिवेशिक युग मे जिहाद के विरूद्ध खूब प्रचार किया, और जिहाद की भयानक तस्वीर पेश करने में कोर्इ कसर नही छोड़ी और यह सब कुछ उस समय हुआ, जब स्वयं उनके अत्याचारों से आधी दुनिया पीड़ित थी। आज भी यूरोप और अमेरिका अपने आर्थिक और राजनैतिक फायदों के लिये तोपों, टैंकों, मिजाइलों, युद्धपोतो और आधुनिकतम हथियारों से जिस देश पर चाहे पिल पड़े। सब तर्क संगत और उचित समझाने की कोशिश की जाती हैं, पर जैसे ही इस्लाम और जिहाद का शब्द आया दुष्प्रचार का रिकार्ड खोल दिया जाता है।

‘जिहाद’ अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है-अनथक प्रयास। ऐसा प्रयास जिसमें कोर्इ कसर न रह जाये, यहां तक की यदि जान लड़ानी पड़े तो उसमे भी पीछे न हटा जाये। जिहाद केवल युद्ध के मैदान ही में नही होता, बल्कि जिहाद वास्तव मे उस सत प्रयास का दूसरा नाम हैं, जो अल्लाह के दीन को फैलाने और अल्लाह की खुशी के लिये एक अच्छा बुरार्इ रहित समाज बनाने के लिये किया जाय। इस प्रयास में कभी हथियार उठाने की जरूरत भी हो सकती हैं। परन्तु मूलत: जिहाद केवल जंग के हथयारो से नही होता। कुरआन ने कर्इ बार जिहाद की अपील की हैं, केवल जान से नही, बल्कि माल से भी जिहाद करने को कहा है। इस्लाम जब अपने मानने वालों से जिहाद के लिये कहता है तो उसका अर्थ होता हैं कि जमीन से फसाद और अन्याय को मिटाने के लिए जोरदार प्रयास किया जाये और जो कुछ हैं सब दांव पर लोग दिया जाये।

इस्लाम और औरतें
            इस्लाम से जुड़ा एक बहुचर्चित विषय महिलाओं का भी हैं। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि इस्लाम औरतो के साथ पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाता हैं। ऐसे आरोपो को स्वर मूलत: पश्चिम मे दिया जाता हैं।

यदि ये लोग यह चाहते हो कि इस्लाम भी महिलाओ के साथ उस व्यवहार की पुष्टि करे, जो पश्चिम मे उनके साथ हो रहा हैं तो उसका जवाब साफ शब्दों मे नही है। दोनो का आदर्श एक दूसरे से उलटा हैं। इस्लाम महिलाओं को जो शालीनता, गौरव, सम्मान और संरक्षण देता हैं, उसका कोर्इ जोड़ उस सभ्यता से कैसे सम्भव है, जहॉ उसे काल गर्ल (CALL GIRL) बनाया जाता हो, उसे नंगा किया जाता हो और उसे पुरूषो की इच्छाओं की पूर्ति की एक सामग्री मान लिया गया हो। पश्चिमी मापदण्ड पर इस्लामी महिला भला कैसे फिट हो सकती हैं। हां यह बात अपनी जगह किसी हद तक सही हैं कि मुस्लिम समाज मे कही-कहीं महिलाओं को वे अधिकार प्राप्त नही जो इस्लाम उन्हें देता हैं। और उसके कारण कारण उन्हे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। महिलाएं और पुरूष अपने इस्लामी अधिकारों और कर्तव्यों से पूरी तरह परिचित नही और उसे पूरी तरह कार्यान्वित नही करते। जहॉ तक इस्लामी कानून का मामला हैं उसने महिलाओ और पुरूषों को समान अधिकार दिये हैं। आज भी हमारा समाज बेटियों को बोझ समझता हैं। इस्लाम बेटे और बेटी के बीच कोर्इ भेदभाव नही करता । इन्सान की हैसियत से दोनो को बराबर समझता हैं।
शारीरिक और मनोवैज्ञानिक हैसियत मे दोनो के बीच बड़ा अन्तर होता हैं। इस्लाम उस प्राकृतिक अन्तर को सामने रखते हुए अधिकार और कर्तव्य की सूची बनाता हैं। इस अन्तर को सामने रखते हुए महिलाओं को जो विशेष स्थान मिलना चाहिए वह उसे प्रदान भी करता है और उस का संरक्षण भी करता है, उसे पुरूषों की दया पर नही छोड़ता। इस्लाम चाहता हैं कि महिलाओं पर उनके सामथ्र्य से अधिक बोझ न डाला जाये। पुरूषो का महिला बन जाना और महिलाओं का पुरूष बन जाना प्रकृति के विरूद्ध हैं और इस्लाम के लिये अस्वीकारीय हैं।

अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने फरमाया-’’औरतों से अच्छा व्यवहार करने के बारे मे मेरी वसीयत कुबूल करो।                (बुखारी, मुिरूलम)


‘‘कुरआन मे हैं:

‘‘और उन से अच्छा बरताव रखों।’’  (निसा :19)

‘‘औरतों के अधिकार मर्दो पर मारूफ तरीके पर ऐसी  ही है, जैसे मर्दो के अधिकार औरतों पर हैं और मर्दो को उन पर एक दर्जा हासिल हैं।(बकरा : 228)