इस्लाम में भक्ति और उपासना
Author Name: इस्लाम एक परिचय:अबू मुहम्मद इमामुद्दीन रामनगरी

मनुष्य का जो कुछ है और मनुष्यों के लिए जो कुछ हैं सब र्इश्वर ही का हैं, ज्ञान, बुद्धि, विद्या और शक्ति भी उसी की कृपादान का फल हैं। मनुष्य जिन वस्तुओं से लाभ उठाता और अपनी आवश्यकताए पूरी करता हैं वह सब भी र्इश्वर ही कि देन हैं। इसी प्रकार मनुष्य की विद्या और बुद्धि हो या ज्ञान और कर्म, धन और सम्पत्ति हो या उद्योग और वाणिज्य, कुटुम्ब और परिवार हो या नौकर-चाकर मनुष्य का व्यक्तिगत कार्य हो या सामाजिक, सुधार कार्य हो या राजनैतिक, मनुष्य के किसी कार्य और किसी वस्तु का विभाजन नही किया जा सकता कि उनके कुछ भागों में तो मनुष्य र्इश्वर की सत्ता और प्रभुता के अधीन हो और कुछ भागों में स्वतंत्र और स्वच्छन्द। जब मनुष्य और उसका सब कुछ र्इश्वर का हैं तो उसका सारा समय और समस्त कार्य र्इश्वर की सत्ता और प्रभुता के अधीन है उसे हर अवस्था, हर दशा, हर समय और हर कार्य में र्इश्वर का भक्त, उसका दास और आज्ञाकारी होना चाहिए। अत: मनुष्य का धर्म हैं कि वह जो कुछ करें जिस उद्देश्य से करे र्इश्वर की आज्ञानुसार करें। उसकी आज्ञा उसके नियम और उसकी प्रसन्नता के विचार से मुक्त होकर मनुष्य को कोर्इ कार्य करने का अधिकार नही हैं।

यह हैं इबादत और भक्ति के सम्बन्ध में इस्लाम का मत। दूसरे शब्दों में इस्लाम के मतानुसार र्इश्वर की पूजा और भक्ति का प्रश्न मनुष्य के कुछ समय और कुछ कार्य का प्रश्न नही हैं, उसके समस्त समय और सम्पूर्ण जीवन का प्रश्न है।

पूजा और भक्ति के क्षेत्र की इस विस्तृता पर सम्भव हैं आपको आश्चर्य हो क्योकि आपने तो यही सुना हैं कि धर्म व्यक्तिगत मामला हैं और उसका सम्बन्ध मनुष्य के अन्तरात्मा से हैं। हो सकता हैं कि दूसरे धर्मो के विषय में यह बात सत्य भी हो परन्तु जहां तक इस्लाम का सम्बन्ध हैं मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, इस्लाम के मतानुसार र्इश्वर की इबादत और भक्ति ही के अधीन हैं।

अब आइए इस्लाम के इस मत पर एक ज्ञानात्मक दृष्टि डालकर देखे कि यह मत ज्ञान-संगत हैं या ज्ञान-विरूद्ध?

(1) एक मनुष्य चाहे किसी मत और किसी विचार का हो वह अपनी प्रकृति में र्इश्वर का पूर्ण भक्त और आज्ञाकारी हैं। उसका खाना, पीना, सोना, जागना, देखना, सुनना और बोलना, उसका ठण्डक और गरमी के प्रभाव से बाध्य होकर अपनी रक्षा की व्यवस्था करना यह सब भी र्इश्वर की प्राकृतिक भक्ति और उसके नियम का स्वाभाविक पालन करना ही हैं। फिर क्या यह उचित नही हैं कि जिस प्रकार अपनी प्रकृति की सीमा के भीतर र्इश्वर के प्राकृतिक नियमों का पालन कर रहा हैं उसी प्रकार अपने जीवन के शेष भाग में भी र्इश्वर ही के दिए हुए नियमों का पालन करे और उन्ही के अनुसार जीवन बिताए?

(2) यदि इबादत और भक्ति को दिन और रात्रि के कुछ मुख्य समय और कुछ मुख्य गतिविधि और संस्कार तक सीमित माना जाए और शेष जीवन के लिए यह मान लिया जाए कि र्इश्वर ने मनुष्य को कोर्इ जीवन व्यवस्था ही नही दी हैं, वह स्वंय जैसे नियम और विधान चाहे बनाए और जैसा जीवन चाहे व्यतीत करे, र्इश्वर की आज्ञा और अवज्ञा तथा उसकी प्रसन्नता और अप्रसन्नता का कोर्इ प्रश्न ही नही तो विचार कीजिए कि फिर इस कोरी पूजा और भक्ति और इस इबादत और बन्दगी का मूल्य ही क्या रह जाता है? बल्कि यह कहा जाए तो अनुचित न होगा कि र्इश्वर ही के मानने का क्या लाभ? भक्ति और इबादत को जीवन-क्षेत्र से अलग कर देने ही का तो यह परिणाम हैं जो र्इश्वर को अर्थहीन समझ कर उसके अस्तित्व का इंकार किया जा रहा हैं।

(3)संसार के इतिहास में किसी ऐसे शासक का वर्णन नही है और न आज भी कोर्इ ऐसा शासक मौजूद हैं जो अपनी प्रजा को जीवन की सारी आवश्यक वस्तुए तो दे भी दे परन्तु उनके उपयोग और उपभोग की कोर्इ व्यवस्था न दे और जन साधारण को पूर्ण स्वतंत्रता और अधिकार प्रदान कर दे कि जो व्यक्ति और दल जिस प्रकार चाहे उन वस्तुओं को व्यवहार में लाए और उनसे उठाए, और यदि कोर्इ शासक ऐसा करे भी तो परिणाम क्या होगा? देश भर में भयंकर अराजकता और अशान्ति फैल जाएगी और सारा संसार ऐसे शासक को मूर्ख बल्कि पागल ठहराएगा, फिर र्इश्वर के विषय में यह बात कैेसे स्वीकार की जा सकती हैं कि उसने सब कुछ तो मनुष्य को दे दिया, नही दिया तो उपयोग और उपभोग का नियम?

इस समय जो आप देख रहे हैं कि मानव जीवन की सारी व्यवस्था अव्यवस्थित हो रही हैं और उसके सुधार और बनाव के लिए जितना यत्न किया जाता हैं उसमें उतना ही बिगाड़ बढ़ता जाता हैं। उसका कारण यही हैं कि बड़ी हद तक तो मनुष्य को र्इश्वर पर से विश्वास उठ गया है और जितना हैं भी उसका सांसारिक जीवन से कोर्इ सम्बन्ध नही। जिन वर्गो, जातियों और देशों के हाथ मे शक्ति हैं वह जैसी जीवन-व्यवस्था चाहते हैं बनाते हैं और उसी को दूसरों पर लादने का प्रयत्न करते हैं। ऐसी सारी व्यवस्थाए उस वर्ग के लिए तो लाभकारी होती हैं जो उनको बनाता हैं
और दूसरों के लिए हानिकारक होती है, इसलिए दूसरे वर्गो में अशान्ति उत्पन्न होती हैं और इसी से अशान्ति और युद्ध का सूत्रपात होता हैं।

(4) जो लोग र्इश्वर को मानते है वे किसी न किसी रूप मे परलोक और उसके दण्ड और उसके पुरस्कार को भी मानते हैं। अत: इस बात का मानना भी अनिवार्य हो जाता हैं कि मनुष्य अपने पूर्ण जीवन में र्इश्वर का आज्ञाकारी हो और हमे इस अवस्था मे उसके पूर्ण जीवन के लिए र्इश्वरीय नियम का होना भी अनिवार्य होगा। अगर ऐसा न हो बल्कि र्इश्वर की ओर से मनुष्य स्वतंत्र हो कि वह प्रकार चाहे जीवन व्यतीत करे और जिस प्रकार का चाहें अपने लिए नियम और विधान बनाए तो यह बात न तो न्याय संगत हो सकती हैं और न बुद्धि संगत। दूसरे जीवन मे र्इश्वर मनुष्य से इस जीवन का हिसाब ले और उसके अच्छे और बुरे कर्मो का पुरस्कार और दण्ड दे, ऐसा तो किसी सांसारिक शासन मे भी नही होता कि जनता को कोर्इ नियम न दिया जाए और उसको न्यायालय में बुला कर उसके कार्य और व्यवहार पर विचार किया जाए और किसी को पुरस्कार और किसी को दण्ड दिया जाए। फिर र्इश्वर जो हर दोष और विकार से पवित्र हैं कोर्इ जीवन-व्यवस्था दिए बिना दण्ड और पुरस्कार दे, यह कैसे सम्भव हैं?

‘‘तेरा स्वामी जो हर मान मर्यादा का स्वामी हैं उन त्रुटियों से पवित्र हैं जिनको लोग उससे सम्बन्धित करते हैं।’’ (कुरआन, 37:180)